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शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए 10 विधेयकों का आरक्षण गैरकानूनी और कानून में त्रुटिपूर्ण है।
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि राज्यपाल को विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि राज्य विधानसभा ने उन्हें फिर से पारित कर दिया था। अदालत ने कहा कि राज्यपाल को या तो विधेयकों पर सहमति देनी चाहिए थी या उन्हें वापस विधानसभा को पुनर्विचार के लिए भेजना चाहिए था।
अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपाल को राज्य सरकार के कामकाज को ‘चोकहोल्ड’ नहीं करना चाहिए। पीठ ने कहा कि राज्यपाल का आचरण ‘अत्यंत खेदजनक’ है और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है।
यह फैसला तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर आया है, जिसमें राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा कई विधेयकों को मंजूरी देने में देरी को चुनौती दी गई थी। राज्य सरकार ने तर्क दिया था कि राज्यपाल जानबूझकर विधेयकों को रोक रहे हैं, जिससे राज्य के प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले राज्यपाल को रोके गए विधेयकों पर अपना रुख स्पष्ट करने का निर्देश दिया था। हालांकि, राज्यपाल ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया, जिसके बाद अदालत ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए विधेयकों को मंजूरी देने का फैसला किया।
अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को ‘पूर्ण न्याय’ करने के लिए आवश्यक कोई भी आदेश पारित करने की असाधारण शक्ति प्रदान करता है। इस शक्ति का इस्तेमाल आमतौर पर तभी किया जाता है जब कानून में कोई स्पष्ट प्रावधान न हो या जब मौजूदा कानूनों का कठोरता से पालन करने से अन्याय हो सकता है।
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राज्यपाल का आचरण संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन है और इससे राज्य में संवैधानिक गतिरोध पैदा हो रहा है। इसलिए, अदालत ने पूर्ण न्याय करने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल करने का फैसला किया।
यह फैसला राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच शक्तियों के संतुलन के संबंध में एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है। यह स्पष्ट करता है कि राज्यपालों को राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को अनावश्यक रूप से नहीं रोकना चाहिए।