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श्रीनगर: जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सेना को साल 1988 से कब्जे में ली गई जमीन का मुआवजा जल्द से जल्द चुकाने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि ‘संपत्ति के अधिकार’ को किसी भी परिस्थिति में नकारा नहीं जा सकता, और यह मौलिक अधिकारों के समान एक मानवाधिकार है। यह फैसला उन याचिकाकर्ताओं के पक्ष में आया है जिनकी जमीन को सेना ने सुरक्षा उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित किए बिना ही उपयोग करना शुरू कर दिया था। कोर्ट का यह रुख सरकारी एजेंसियों द्वारा निजी संपत्ति के अधिकारों के उल्लंघन पर एक कड़ी टिप्पणी है।
अपने 27 पृष्ठों के आदेश में, हाई कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी (सेना अधिकारी) याचिकाकर्ताओं की जमीन का उपयोग और कब्जा तभी जारी रख सकते हैं जब वे इसके इस्तेमाल और कब्जे के लिए कानूनी मुआवजे का भुगतान करें। न्यायालय ने टिप्पणी की कि लोकतांत्रिक देश में सरकार कानून के शासन से ऊपर नहीं हो सकती और नागरिकों की संपत्ति बिना कानूनी प्रक्रिया के नहीं ली जा सकती। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि मुआवजे की राशि का निर्धारण शीघ्र किया जाए और इसका भुगतान पिछली तारीख से किया जाना चाहिए। इस फैसले से हजारों अन्य ग्रामीणों को भी राहत मिलने की उम्मीद है जिनकी जमीन भी लंबे समय से कब्जे में है।
कोर्ट ने राज्य प्रशासन और रक्षा मंत्रालय को इस मामले में आपसी समन्वय स्थापित करके शीघ्र समाधान निकालने का निर्देश दिया है। न्यायालय ने यह भी कहा कि सेना के लिए आवश्यक भूमि का अधिग्रहण कानूनी तरीके से किया जाना चाहिए और तय कानूनी प्रक्रिया का पालन अनिवार्य है। यह फैसला सैन्य आवश्यकताओं और नागरिकों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। जमीन के मालिक तीन दशकों से अधिक समय से न्याय की गुहार लगा रहे थे, और अब उन्हें राहत मिली है।